हम ट्रेन में चड़ गए। यह डिब्बा S-1 था, स्लीपर क्लास का डिब्बा मैंने पहली बार ही देखा था, इसमें बीच में भी एक सीट थी। मैंने मोबाइल में पढ़कर लगभग यही अनुमान लगाया था। मेरी सीट का नम्बर 70 था, हम ढूंढ़ते-ढूंढ़ते 70 पर पहुँच गए, मेरी नीचे बाली बर्थ थी। हम जाकर उस पर बैठ गए। एक मेरी उम्र का लड़का था, जो वहीं बैठा था, बाँकी सभी सीट खाली थीं। भूरा मेरे सामने वाली सीट पर बैठ गया। मैं 70वीं सीट पर पर बैग रखकर जूते खोलकर लेट गया। मैने वीडियो बंद कर दी। पौने ग्यारह बजे हमें ट्रेन मिली थी।हम बहुत खुश थे, मैं तो अंदर से नाच रहा था और बहुत बोल रहा था, शायद हर्ष में था। भूरा भी खुश था। कुछ देर विदिशा रेलवे स्टेशन पर ठहर कर ट्रेन चल पड़ी। धीरे-धीरे उसने स्पीड बढ़ाई। मैं सीट पर उल्टा लेट कर खिड़की के बाहर देख रहा था। प्लेटफार्म पर जो भीड़ थी, वह कम हो गई थी, वहाँ कम लोग बचे थे।स्टेशन के बाद मंडी वाले ओवर बिज्र के नीचे से निकले, धीरे-धीरे विदिशा से निकलते रहे। ट्रेन के किनारे वाले घरों के कमरों में अंदर से आता प्रकाश उम्मीद और जीवन का घोतक था। उन्हें देख-देख कर सोच रहा था कि यहाँ भी कोई रहता है। यह सब घर अंदर से कैसे दिखते होंगे, सीढ़ी कहाँ होगी, कितने लोग इनमें रहते होंगे। वह किस तरह की बात करते होंगे। वह इस समय क्या कर रहे होंगे, शायद सो गए होंगे, कुछ मोबाइल चला रहे होंगे। क्या वह हमारी ट्रेन पर ध्यान दे रहे होंगे। उनमें इंसान नहीं दिख रहे थे, पर वह निर्जन नहीं थे, उनमें विदिशा की जनता थी। वह जनता जो सड़कों पर उतरकर भीड़ बन जाती है और यदि पूरी की पूरी घर से निकल जाए तो सड़को पर जगह नहीं बचेगी, पूरा विदिशा भर जाएगा।विदिशा निकल गया, मैंने बिना कहे उसे अलविदा कहा और कहा कि हम कुछ दिनों में वापिस आयेंगे हमारा इंतजार करना। हम अभी मथुरा जा रहे हैं।